गेहूँ की खेती विश्व के प्रायः हर भाग में होती है. संसार की कुल 23 प्रतिशत भूमि पर गेहूँ की खेती की जाती है. गेहूँ विश्वव्यापी महत्त्व की फसल है. मुख्य रूप से एशिया में धान की खेती की जाती है, तो भी विश्व के सभी प्रायद्वीपों में गेहूँ उगाया जाता है. विश्व में सबसे अधिक क्षेत्र फल में गेहूँ उगाने वाले प्रमुख तीन राष्ट्र भारत, रशियन फैडरेशन और संयुक्त राज्य अमेरिका है. गेहूँ उत्पादन में चीन के बाद भारत तथा अमेरिका का क्रम आता है.
गेहूँ सभी प्रकार की कृषि योग्य भूमियों में पैदा हो सकता है परन्तु दोमट से भारी दोमट, जलोढ़ मृदाओ में गेहूँ की खेती सफलता पूर्वक की जाती है. जल निकास की सुविधा होने पर मटियार दोमट तथा काली मिट्टी में भी इसकी अच्छी फसल ली जा सकती है. कपास की काली मृदा में गेहूँ की खेती के लिए सिंचाई की आवश्यकता कम पड़ती है. भूमि का पी.एच.मान 5 से 7.5 के बीच में होना फसल के लिए उपयुक्त रहता है क्योंकि अधिक क्षारीय या अम्लीय भूमि गेहूं के लिए अनुपयुक्त होती है.
खेत की तैयारी
अच्छे अंकुरण के लिये एक बेहतर भुरभुरी मिट्टी की आवश्यकता होती है. समय पर जुताई खेत में नमी संरक्षण के लिए भी आवश्यक है. वास्तव में खेत की तैयारी करते समय हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि बोआई के समय खेत खरपतवार मुक्त हो, भूमि में पर्याप्त नमी हो तथा मिट्टी इतनी भुरभुरी हो जाये ताकि बोआई आसानी से उचित गहराई तथा समान दूरी पर की जा सके.
खरीफ की फसल काटने के बाद खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल (एमबी प्लोऊ) से करनी चाहिए जिससे खरीफ फसल के अवशेष और खरपतवार मिट्टी मे दबकर सड़ जायें. इसके बाद आवश्यकतानुसार 2-3 जुताइयाँ देशी हल-बखर या कल्टीवेटर से करनी चाहिए. प्रत्येक जुताई के बाद पाटा देकर खेत समतल कर लेना चाहिए.सिंचित क्षेत्र (समय पर बुवाई)- एच डी 2888, डी.एल. 803, एच डी 2967, यू पी 2382, एच यू डब्ल्यू 468, जी. डब्लू190, एच डी 2733, के 307 (शताब्दी), डब्ल्यू एच 542, डब्ल्यू एच 1105, एच डी 2964, एच.आई.1077, डी पी डब्ल्यू 621-50, पी बी डब्ल्यू 550, पी बी डब्ल्यू 17, पी बी डब्ल्यू 502, एच डी 2687, पी डी डब्ल्यू 314 (कठिया), पी डी डब्ल्यू 291 (कठिया), पी डी डब्ल्यू 233 (कठिया), डब्ल्यू एच 896 (कठिया), राज 3077, राज 1555, लोक 1, एच आई 1077, एच.आई. 8381, डब्ल्यू एच 147, एच आई 8381, एच आई 8498, जी डब्ल्यू 190, डी एल 803-3, जी डब्ल्यू 273, जी डब्ल्यू 322, पी डी डब्ल्यू 215, राज 4037, राज 3777, एच आई 1544 और एच आई 1531 इत्यादि गेहूं की प्रमुख किस्में हैसिंचित क्षेत्र (देर से बुवाई)- पी बी डब्ल्यू 373, पी बी डब्ल्यू 590, जी.डब्लू. 273, जी. डब्लू. 173, डब्ल्यू एच 1021, पी बी डब्ल्यू 16, एच यू डब्ल्यू 510, के 9423, के 9423, (उन्नत हालना), के 424 (गोल्डन हालना), लोक 1, राज 3765, जी डब्ल्यू 173, जी डब्ल्यू 273, एच डी 2236, राज 3077, राज 3777, एच.डी. 2932 आदि गेहूं की प्रमुख किस्में है|
गेहूँ की प्रमुख उन्नत किस्मो की विशेषताएं
बीजोपचार
बुआई के लिए जो बीज इस्तेमाल किया जाता है वह रोग मुक्त, प्रमाणित तथा क्षेत्र विशेष के लिए अनुशंषित उन्नत किस्म का होना चाहिएअलावा रोगों की रोकथाम के लिए ट्राइकोडरमा की 4 ग्राम मात्रा 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के साथ प्रति किग्रा बीज की दर से बीज शोधन किया जा सकता है.
बोआई का समय
गेंहूँ रबी की फसल है जिसे शीतकालीन मौसम में उगाया जाता है. भारत के विभिन्न भागो में गेहूँ का जीवन काल भिन्न-भिन्न रहता है सामान्य तौर पर गेहूं की बोआई अक्टूबर से दिसंबर तक की जाती है तथा फसल की कटाई फरवरी से मई तक की जाती है. जिन किस्मों की अवधि 135-140 दिन है, उनको नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में व जो किस्में पकने में 120 दिन का समय लेती है, उन्हे 15 - 30 नवम्बर तक बोना चाहिए.
गेहूँ की शीघ्र बुवाई करने पर बालियाँ पहले निकल आती है तथा उत्पादन कम होता है जबकि तापक्रम पर बुवाई करने पर अंकुरण देर से होता है . प्रयोगो से यह देखा गया है कि लगभग 15 नवम्बर के आसपास गेहूँ बोये जाने पर अधिकतर बौनी किस्में अधिकतम उपज देती है. अक्टूबर के उत्तरार्द्ध में बोयी गई लंबी किस्मो से भी अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है . असिंचित अवस्था में बोने का उपयुक्त समय बर्षा ऋतु समाप्त होते ही मध्य अक्टूबर के लगभग है. अर्द्धसिंचित अवस्था मे जहाँ पानी सिर्फ 2 - 3 सिंचाई के लिये ही उपलब्ध हो, वहाँ बोने का उपयुक्त समय 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक है. सिंचित गेहूँ बोने का उपयुक्त समय नवम्बर का प्रथम पखवाड़ा है. बोनी में 30 नवम्बर से अधिक देरी नहीं होना चाहिए. यदि किसी कारण से बोनी विलंब से करनी हो तब देर से बोने वाली किस्मो की बोनी दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक हो जाना चाहिये. देर से बोयी गई फसल को पकने से पहले ही सूखी और गर्म हवा का सामना करना पड़ जाता है जिससे दाने सिकुड़ जाते है तथा उपज कम हो जाती है.
बीज दर एवं पौध अंतरण
चुनी हुई किस्म के बड़े-बड़े साफ, स्वस्थ्य और विकार रहित दाने, जो किसी उत्तम फसल से प्राप्त कर सुरंक्षित स्थान पर रखे गये हो, उत्तम बीज होते है . बीज दर भूमि मे नमी की मात्रा, बोने की विधि तथा किस्म पर निर्भर करती है. बोने गेहूँ की खेती के लिए बीज की मात्रा देशी गेहूँ से अधिक होती है. बोने गेहूँ के लिए 100-120 किग्रा. प्रति हैक्टर तथा देशी गेहूँ के लिए 70-90 किग्रा. बीज प्रति हैक्टर की दर से बोतें है.
असिंचित गेहूँ के लिए बीज की मात्रा 100 किलो प्रति हेक्टेर व कतारों के बीच की दूरी 22 - 23 से. मी. होनी चाहिये. समय पर बोये जाने वाले सिंचित गेहूं मे बीज दरं 100 - 125 किलो प्रति हेक्टेयर व कतारो की दूरी 20-22.5 से. मी. रखनी चाहिए. देर वाली सिंचित गेहूं की बोआई के लिए बीज दर 125 - 150 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा पंक्तियों के मध्य 15 - 18 से. मी. का अन्तरण रखना उचित रहता है. बीज को रात भर पानी में भिंगोकर बोना लाभप्रद है. भारी चिकनी मिट्टी में नमी की मात्रा आवश्यकता से कम या अधिक रहने तथा बुआई में बहुत देर हो जाने पर अधिक बीज ब¨ना चाहिए. मिट्टी के कम उपजाऊ होने या फसल पर रोग या कीटो से आक्रमण की सम्भावना होने पर भी बीज अधिक मात्रा में डाले जाते है.
प्रयोगों में यह देखा गया है कि पूर्व-पश्चिम व उत्तर-दक्षिण क्रास बोआई करने पर गेहूँ की अधिक उपज प्राप्त होती है. इस विधि में कुल बीज व खाद की मात्रा, आधा-आधा करके उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम दिशा में बोआई की जाती है. इस प्रकार पौधे सूर्य की रोशनी का उचित उपयोग प्रकाश संश्लेषण में कर लेते है, जिससे उपज अधिक मिलती है. गेहूँ मे प्रति वर्गमीटर 400 - 500 बालीयुक्त पौधे होने से अच्छी उपज प्राप्त होती है.
बीज बोने की गहराई
बौने गेंहू की बोआई में गहराई का विशेष महत्व होता है, क्योंकि बौनी किस्मों में प्राकुंरचोल की लम्बाई 4 - 5 से.मी. होती है. अतः यदि इन्हे गहरा बो दिया जाता है तो अंकुरण बहुत कम होता है. गेंहू की बौनी किस्मों क¨ 3-5 से.मी. रखते है. देशी (लम्बी) किस्मों में प्रांकुरचोल की लम्बाई लगभग 7 सेमी. होती है.अतः इनकी बोने की गहराई 5-7 सेमी. रखनी चाहिये.
बोआई की विधियाँ
आमतौर पर गेहूँ की बोआई चार बिधियो से (छिटककर, कूड़ में चोगे या सीड ड्रिल से तथा डिबलिंग) से की जाती है गेहूं बोआई हेतु स्थान विशेष की परिस्थिति अनुसार विधियाँ प्रयोग में लाई जा सकती हैः
छिटकवाँ विधि
इस विधि में बीज को हाथ से समान रूप से खेत में छिटक दिया जाता है और पाटा अथवा देशी हल चलाकर बीज को मिट्टी से ढक दिया जाता है. इस विधि से गेहूँ उन स्थानो पर बोया जाता है, जहाँ अधिक वर्षा होने या मिट्टी भारी दोमट होने से नमी अपेक्षाकृत अधिक समय तक बनी रहती है . इस विधि से बोये गये गेहूँ का अंकुरण ठीक से नही हो पाता, पौध अव्यवस्थित ढंग से उगते है, बीज अधिक मात्रा में लगता है और पौध यत्र्-तत्र् उगने के कारण निराई-गुड़ाई में असुविधा होती है परन्तु अति सरल विधि होने के कारण कृषक इसे अधिक अपनाते है .
हल के पीछे कूड़ में बोआई
गेहूँ बोने की यह सबसे अधिक प्रचलित विधि है . हल के पीछे कूँड़ में बीज गिराकर दो विधियों से बुआई की जाती है -
हल के पीछे हाथ से बोआई (केरा विधि)
इसका प्रयोग उन स्थानों पर किया जाता है जहाँ बुआई अधिक रकबे में की जाती है तथा खेत में पर्याप्त नमी रहती हो . इस विधि मे देशी हल के पीछे बनी कूड़ो में जब एक व्यक्ति खाद और बीज मिलाकर हाथ से बोता चलता है तो इस विधि को केरा विधि कहते है . हल के घूमकर दूसरी बार आने पर पहले बने कूँड़ कुछ स्वंय ही ढंक जाते है . सम्पूर्ण खेत बो जाने के बाद पाटा चलाते है, जिससे बीज भी ढंक जाता है और खेत भी चोरस हो जाता है .
देशी हल के पीछे नाई बाँधकर बोआई (पोरा विधि)
इस विधि का प्रयोग असिंचित क्षेत्रों या नमी की कमी वाले क्षेत्रों में किया जाता है. इसमें नाई, बास या चैंगा हल के पीछे बंधा रहता है. एक ही आदमी हल चलाता है तथा दूसरा बीज डालने का कार्य करता है. इसमें उचित दूरी पर देशी हल द्वारा 5 - 8 सेमी. गहरे कूड़ में बीज पड़ता है . इस विधि मे बीज समान गहराई पर पड़ते है जिससे उनका समुचित अंकुरण होता है. कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए देशी हल के स्थान पर कल्टीवेटर का प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि कल्टीवेटर से एक बार में तीन कूड़ बनते है.
शून्य कर्षण सीड ड्रिल विधि
धान की कटाई के उपरांत किसानों को रबी की फसल गेहूं आदि के लिए खेत तैयार करने पड़ते हैं. गेहूं के लिए किसानों को अमूमन 5-7 जुताइयां करनी पड़ती हैं. ज्यादा जुताइयों की वजह से किसान समय पर गेहूं की ब¨आई नहीं कर पाते, जिसका सीधा असर गेहूं के उत्पादन पर पड़ता है. इसके अलावा इसमें लागत भी अधिक आती है. ऐसे में किसानों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता. शून्य कर्षण से किसानों का समय तो बचता ही है, साथ ही लागत भी कम आती है, जिससे किसानों का लाभ काफी बढ़ जाता है. इस विधि के माध्यम से खेत की जुताई और बिजाई दोनों ही काम एक साथ हो जाते हैं. इससे बीज भी कम लगता है और पैदावार करीब 15 प्रतिशत बढ़ जाती है. खेत की तैयारी में लगने वाले श्रम व सिंचाई के रूप में भी करीब 15 प्रतिशत बचत होती है. इसके अलावा खरपतवार प्रकोप भी कम होता है, जिससे खरपतवारनाशकों का खर्च भी कम हो जाता है. समय से बुआई होने से पैदावार भी अच्छी होती है.
खाद एवं उर्वरक
फसल की प्रति इकाई पैदावार बहुत कुछ खाद एवं उर्वरक की मात्रा पर निर्भर करती है. गेहूँ में हरी खाद, जैविक खाद एवं रासायनिक खाद का प्रयोग किया जाता है. खाद एवं उर्वरक की मात्रा गेहूँ की किस्म, सिंचाई की सुविधा, बोने की विधि आदि कारकों पर निर्भर करती है. अच्छी उपज लेने के लिए भूमि में कम से कम 35-40 क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से सड़ी हुई खाद 50 किलो ग्राम नीम की खली और 50 किलो अरंडी की खली आदि इन सब खादों को अच्छी तरह मिलाकर खेत में बुवाई से पहले इस मिश्रण को समान मात्रा में बिखेर लें. इसके बाद खेत में अच्छी तरह से जुताई कर खेत को तैयार करें इसके उपरांत बुवाई करें
सीड ड्रिल द्वारा बोआई
यह पोरा विधि का एक सुधरा रूप है. विस्तृत क्षेत्र में बोआई करने के लिये यह आसान तथा सस्ता ढंग है . इसमे बोआई बैल चलित या ट्रेक्टर चलित बीज वपित्र द्वारा की जाती है. इस मशीन में पौध अन्तरण व बीज दर का समायोजन इच्छानुसार किया जा सकता है. इस विधि से बीज भी कम लगता है और बोआई निश्चित दूरी तथा गहराई पर सम रूप से हो पाती है जिससे अंकुरण अच्छा होता है . इस विधि से बोने में समय कम लगता है .
डिबलर द्वारा बोआई
इस विधि में प्रत्येक बीज क¨ मिट्टी में छेदकर निर्दिष्ट स्थान पर मनचाही गहराई पर बोते है . इसमें एक लकड़ी का फ्रेम को खेत में रखकर दबाया जाता है तो खूटियो से भूमि मे छेद हो जाते हैं जिनमें 1-2 बीज प्रति छेद की दर से डालते हैं. इस विधि से बीज की मात्रा काफी कम (25-30 किग्रा. प्रति हेक्टर) लगती है परन्तु समय व श्रम अधिक लगने के कारण उत्पादन लागत बढ़ जाती है.
फर्ब विधि
इस विधि में सिंचाई जल बचाने के उद्देश्य से ऊँची उठी हुई क्यारियाँ तथा नालियाँ बनाई जाती है. क्यारियो की चोड़ाई इतनी रखी जाती है कि उस पर 2-3 कूड़े आसानी से बुआई की जा सके तथा नालियाँ सिंचाई के लिए प्रयोग में ली जाती है . इस प्रकार लगभग आधे सिंचाई जल की बचत हो जाती है. इस विधि में सामान्य प्रचलित विधि की तुलना में उपज अधिक प्राप्त होती है . इसमें ट्रैक्टर चालित यंत्र् से बुवाई की जाती है . यह यंत्र क्यारियाँ बनाने, नाली बनाने तथा क्यारी पर कूंड़ो में एक साथ बुवाई करने का कार्य करता है .
खेत में 10-15 टन प्रति हेक्टर की दर से सडी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट फैलाकर जुताई के समय बो आई पूर्व मिट्टी में मिला देना चाहिए . रासायनिक उर्वरको में नाइट्रोजन, फास्फोरस , एवं पोटाश मुख्य है . सिंचित गेहूँ में (बौनी किस्में) बोने के समय आधार मात्रा के रूप में 125 किलो नाइट्रोजन, 50 किलो स्फुर व 40 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिये. देशी किस्मों में 60:30:30 किग्रा. प्रति हेक्टेयर के अनुपात में उर्वरक देना चाहिए. असिंचित गेहूँ की देशी किस्मों मे आधार मात्रा के रूप में 40 किलो नाइट्रोजन, 30 किलो स्फुर व 20 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर बोआई के समय हल की तली में देना चाहिये. बौनी किस्मों में 60:40:30 किलों के अनुपात में नाइट्रोजन, स्फुर व पोटाश बोआई के समय देना लाभप्रद पाया गया है.
सिंचाई : भारत मे लगभग 50 प्रतिशत क्षेत्र में गेहूँ की खेती असिंचित दशा में की जाती है. परन्तु बौनी किस्मों से अधिकतम उपज के लिए सिंचाई आवश्यक है. गेहूँ की बौनी किस्मों को 30-35 हेक्टर से.मी. और देशी किस्मों को 15-20 हेक्टर से.मी. पानी की कुल आवश्यकता होती है. उपलब्ध जल के अनुसार गेहूँ में सिंचाई क्यारियाँ बनाकर करनी चाहिये. प्रथम सिंचाई में औसतन 5 सेमी. तथा बाद की सिंचाईयों में 7.5 सेमी. पानी देना चाहिए. सिंचाईयो की संख्या और पानी की मात्रा मृदा के प्रकार, वायुमण्डल का तापक्रम तथा बोई गई किस्म पर निर्भर करती है . फसल अवधि की कुछ विशेष क्रान्तिक अवस्थाओं पर बौनी किस्मों में सिंचाई करना आवश्यक होता है. सिंचाई की ये क्रान्तिक अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं -
पहली सिंचाई शीर्ष जड़ प्रवर्तन अवस्थापर अर्थात बोने के 20 से 25 दिन पर सिंचाई करना चाहिये. लम्बी किस्मों में पहली सिंचाई सामान्यतः बोने के लगभग 30-35 दिन बाद की जाती है.
दूसरी सिंचाई दोजियां निकलने की अवस्थाअर्थात बोआई के लगभग 40-50 दिन बाद.
तीसरी सिंचाई सुशांत अवस्थाअर्थात ब¨आई के लगभग 60-70 दिन बाद .
चौथी सिंचाई फूल आने की अवस्थाअर्थात बोआई के 80-90 दिन बाद .
दूध बनने तथा शिथिल अवस्थाअर्थात बोने के 100-120 दिन बाद.
पर्याप्त सिंचाईयां उपलब्ध होने पर बौने गेहूं में 4-6 सिंचाई देना श्रेयस्कर होता है. यदि मिट्टी काफी हल्की या बलुई है तो 2-3 अतिरिक्त सिंचाईयो की आवश्यकता हो सकती है . सीमित मात्रा में जलापूर्ति की स्थित में सिंचाई का निर्धारण निम्नानुसार किया जाना चाहिए:
यदि केवल दो सिंचाई की ही सुविधा उपलब्ध है, तो पहली सिंचाई बोआई के 20-25 दिन बाद (शीर्ष जड़ प्रवर्तन अवस्था) तथा दूसरी सिंचाई फूल आने के समय बोने के 80-90 दिन बाद करनी चाहिये. यदि पानी तीन सिंचाइयों हेतु उपलब्ध है तो पहली सिंचाई शीर्ष जड प्रवर्तन अवस्था पर (बोआई के 20-22 दिन बाद), दूसरी तने में गाँठें बनने (बोने क 60-70 दिन बाद) व तीसरी दानो में दूध पड़ने के समय (100-120 दिन बाद) करना चाहिये.
गेहूँ की देशी लम्बी बढ़ने वाली किस्मो में 1-3 सिंचाईयाँ करते हैं. पहली सिंचाई बोने के 20-25 दिन बाद, दूसरी सिंचाई बोने के 60-65 दिन बाद और तीसरी सिंचाई बोने के 90-95 दिन बाद करते हैं.
असिंचित अवस्था में मृदा नमी का प्रबन्धन :खेत की जुताई कम से कम करनी चाहिए तथा जुताई के बाद पाटा चलाना चाहिए. जुताई का कार्य प्रातः व शायंकाल में करने से वाष्पीकरण द्वारा नमी का ह्रास कम होता है. खेत की मेड़बन्दी अच्छी प्रकार से कर लेनी चाहिए, जिससे वर्षा के पानी को खेत में ही संरक्षित किया ता सके. बुआई पंक्तियों में 5 सेमी. गहराई पर करना चाहिए. खाद व उर्वरकों की पूरी मात्रा, बोने के पहले कूड़ों में 10-12 सेमी. गहराई में दें. खरपतवारों पर समयानुसार नियंत्रण करना चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण : गेहूँ के साथ अनेक प्रकार के खरपतवार भी खेत में उगकर पोषक तत्वों, प्रकाश, नमी आदि के लिए फसल के साथ प्रतिस्पर्धा करते है. यदि इन पर नियंत्रण नही किया गया तो गेहूँ की उपज मे 10-40 प्रतिशत तक हानि संभावित है. बोआई से 30-40 दिन तक का समय खरपतवार प्रतिस्पर्धा के लिए अधिक क्रांतिक रहता है. गेहूँ के खेत में चैड़ी पत्ती वाले और घास कुल के खरपतावारों का प्रकोप होता है.
चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार: कृष्णनील, बथुआ, हिरनखुरी, सैंजी, चटरी-मटरी, जंगली गाजर आदि के नियंत्रण हेतु 2,4-डी इथाइल ईस्टर 36 प्रतिशत (ब्लाडेक्स सी, वीडान) की 1.4 किग्रा. मात्रा अथवा 2,4-डी लवण 80 प्रतिशत (फारनेक्सान, टाफाइसाड) की 0.625 किग्रा. मात्रा को 700-800 लीटर पानी मे घोलकर एक हेक्टर में बोनी के 25-30 दिन के अन्दर छिड़काव करना चाहिए.
सँकरी पत्ती वाले खरपतवार: गेहूँ में जंगली जई व गेहूँसा का प्रकोप अधिक देखा जा रहा है. यदि इनका प्रकोप अधिक हो तब उस खेत में गेहूँ न बोकर बरसीम या रिजका की फसल लेना लाभदायक है. इनके नियंत्रण के लिए पेन्डीमिथेलिन 30 ईसी (स्टाम्प) 800-1000 ग्रा. प्रति हेक्टर अथवा आइसोप्रोटयूरॉन 50 डब्लू.पी. 1.5 किग्रा. प्रति हेक्टेयर को बोआई के 2-3 दिन बाद 700-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हे. छिड़काव करें. खड़ी फसल में बोआई के 30-35 दिन बाद मेटाक्सुरान की 1.5 किग्रा. मात्रा को 700 से 800 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर छिड़कना चाहिए. मिश्रित खरपतवार की समस्या होने पर आइसोप्रोट्यूरान 800 ग्रा. और 2,4-डी 0.4 किग्रा. प्रति हे. को मिलाकर छिड़काव करना चाहिए. गेहूँ व सरसों की मिश्रित खेती में खरपतवार नियंत्र्ण हेतु पेन्डीमिथालिन सर्वाधिक उपयुक्त तृणनाशक है .
कटाई-गहाई : जब गेहूँ के दाने पक कर सख्त हो जाय और उनमें नमी का अंश 20-25 प्रतिशत तक आ जाये, फसल की कटाई करनी चाहिये. कटाई हँसिये से की जाती है. बोनी किस्म के गेहूँ को पकने के बाद खेत में नहीं छोड़ना चाहिये, कटाई में देरी करने से, दाने झड़ने लगते है और पक्षियों द्वारा नुकसान होने की संभावना रहती है. कटाई के पश्चात् फसल को 2-3 दिन खलिहान में सुखाकर मड़ाई शक्ति चालित थ्रेशर से की जाती है. कम्बाइन हारवेस्टर का प्रयोग करने से कटाई, मड़ाई तथा ओसाई एक साथ हो जाती है परन्तु कम्बाइन हारवेस्टर से कटाई करने के लिए, दानो में 20 प्रतिशत से अधिक नमी नही होनी चाहिए, क्योकि दानो में ज्यादा नमी रहने पर मड़ाई या गहाई ठीक से नहीं होगी .
उपज एवं भंडारण : उन्नत सस्य तकनीक से खेती करने पर सिंचित अवस्था में गेहूँ की बौनी किस्मो से लगभग 50-60 क्विंटल दाना के अलावा 80-90 क्विंटल भूसा/हेक्टेयर प्राप्त होता है. जबकि देशी लम्बी किस्मों से इसकी लगभग आधी उपज प्राप्त होती है. देशी किस्मो से असिंचित अवस्था में 15-20 क्विंटल प्रति/हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है. सुरक्षित भंडारण हेतु दानों में 10-12% से अधिक नमी नहीं होना चाहिए.भंडारण के पूर्ण कोठियों तथा कमरो को साफ कर लें और दीवालों व फर्श पर मैलाथियान 50% के घोल को 3 लीटर प्रति 100 वर्गमीटर की दर से छिड़कें. अनाज को बुखारी, कोठिलों या कमरे में रखने के बाद एल्युमिनियम फास्फाइड 3 ग्राम की दो गोली प्रति टन की दर से रखकर बंद कर देना चाहिए.
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